ख्वाबों के आंगन, ख्वाबों के परछाईआं

सपने टूटगए शीशे के तरह …

जो शीशा टूट सक्ती है तो सपने क्यों नहीं  ?

टूट के बिखर गए …

— ख्वाबों के आंगन में,

— बटोरने की फुर्सत न मिली !


 जीने के वसूलों को …

सपनो से मुकम्मल  करना …

— वह भी एक सपना !


ख्वाबों के परछाईआं …

अभी भी मेरे पीछे हैं …

— रात में आयें ये कोई जरूरी नहीं …

— रात में आना मुनासिफ रेहता है !


त्यौहार में कोई सजती है …

सिंगार कोई करती है …

— सपनों में …

— खोए हुए अपनों में  …

दीदार भी होती है …

— दिलबर की यादें जपने में


Posted

in

,

by

Tags:

Comments

Leave a comment