हमारे आशा हमारे निराशाओं से बहुत ही छोटी है, कद और उम्र में. ये अभी अभी आयी है. मज़हब ने हमें क्या दिया? सिर्फ निराशा. एक भ्रम, जिसने कायर को शायर कहा और गंदे को महात्मा बताया और ढोंगी को बापू बताया. सब आशा के नाम पर निराशा ही दिया. हमें आशा कि तहकीकात नहीं निराशा कि करनी चाहिए. अपने आशा कि सुंदर सपनों को गिरने से पहले निराशा कि लम्बी ईमारत मज़हब को भूल ना चाहिए. यह एक बिलासमय हिंसा हे, मज़हब . मज़हब एक बिलासमय हिंसा है, यह सिर्फ ध्वंस के तरफ रुख करती हे , क्योंकि यह एक साजिश है, सुन्दर तथा कलात्मक सारे अभिब्यक्ति जो आप में, मुझ में, उनमें, किसी में भी आ सकती है, उसके तरफ एक असहिस्णुता कि तथा अंधकार से प्रेरित असुरक्ष्या कि भाबना को कायम करने कि. इसे पहचानो और इस से दूर हो जाओ.