भारत में कुछ भी करना ना-मुमकिन है. कुछ नहीं करना मुमकिन है !! जो गपशप से थोडा ऊपर उठ जाये वो बिकती है. जैसे चेतन भगत और मंगलयान। पर मंगल कि यात्रा पहले से सूर्यमंडल के यात्राएं सफल होने के वजह से अभी बिक रही है।
बिज्ञान अक्सर परिभाषाओं के दायरे में सिमित रह जाती है क्यों कि इस से ऊपर उठना अल्बर्ट आइनस्टीन के भाषा में “बिज्ञान चमत्कार है अगर इसे कमाने कि एक पन्था से दुरी से देखा जाये तो” जैसे “पूर्ब सोम कि सत्य” जैसा प्रतीत है. यह अलग बिचारों से अलग हो जाती है, पर सत्य एक मात्र उपलब्धि न होने पर भी बहत सारे उपलब्धि भी नहीं हैं, कुछ और सीमित उपलब्धियां सत्य कि भरमाई करते हैं।
चेतन भगत के बिकने के कारण भी ढेर सारे हैं जो बिज्ञान से तालुक नहीं रखते, इसके परिभाषाओं के दायरे में, लेकिन क्या हम कह सकते हैं वो कामशास्त्र से ज्यादा महत्व रखता है? चेतन एक जातीय आशा कि कयामत से परिबंधित है, पर कामशास्त्र एक प्राचीन अतः अंतराष्ट्रीय, तथा एक कोमल भाबना कि महिमा जैसे परिकल्पनिया है. यह चेतन कि महनीयता के ऊपर प्रश्न नहीं, बल्कि सत्य कि बिबिधता के ऊपर आलोकित करने की चेष्टा है।
सत्य कि बिबिधता सिमित हैं, यद्यपि सिर्फ एक में सीमित नहीं।
सत्य अनिर्बचनिया है. यह सुन्दर भी है, शील भी है, इसे अश्लील कहना कामशास्त्र को अश्लील कहना जैसे है. इसे निर्बाचित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सीमित है. इसे बचन से बिवश नहीं किया जा सकता क्यों कि यह अपने आप में एक कृति है.
क्या हम में बहत सारे बात्सायन या चेतन आयें हैं? शायद एक ही नहीं आएंगे, पर इतने भी नहीं आएंगे कि उनकी अपनी पार्लियामेंट बन जायेगी, कौन भला और कौन बुरा ट्रेंड करेगी ट्विटर पे. सोचिये बात्सायन के काल में कोई पब्लिसिटी नहीं थी, पर यह भी सोचिये वह एक महनीयता के कलात्मक परस्ती कर पाने कि वजह से उसे बादशाही ब्यबस्था भी मिली होगी, अपने कला कि परस्ती के लिए? या फिर उस समाज कि कालिमा भी किसी असली कलाकार जिस ने रचना किया होगा ऐसे महान ग्रन्थ कि, को, हटाकर अपने नुमाइंदे को इसकी कलाकार का मान्यता दे दिया होगा। यह सिर्फ भारतीय प्राचीनता कि कालिमा नहीं होगी, होगी एक बिश्व कि जिसने एक प्रथा कि सृष्टि कि होगी, यूरोप से लेकर ग्रीकों तक, काम बनने के पश्चात “कामुक” को शेष इच्छा कि अवकाश दो और उस के कमल कि पेयर के निचे से धरती को हटा दो.
क्या हमने कोणार्क कि महनीयता से बंधी धर्मपद कि वह दुखद मृत्यु को पाशोर दिए जिसे उस के ऊपर समाज ने थोपा था? मैंने तो यह भी कहा है, यह बस एक कहानी ही होगी, मंदिर टूटी क्यों कि अहंकार का जो सीमा तय होती है काबिलियत से उसकी परस्ती नहीं हुई, थोड़े में श्रीलंका बन गया, रामायण का, ध्वस्त हुआ और जो बाकि रेह गयी वोह भी आचम्भित करती है, एक बिश्वा कि कलात्मक धरोहर के रूप मे.
शायद इसी वजह से कोणार्क में सूर्य कि कभी पूजा नहीं हुआ और वह धीरे धीरे बाकि भगबान में तब्दील होनेसे बच गया और अभी भी सूर्य मंदिर के नाम से ही जाना जाता है. अगर यह मंदिर टुटा ना होता तो यह तो लिंगराज और जगतनाथ कि मंदिर जैसा होने के वजह से वहाँ शिब, बिष्णु या फिर चैन से चाइना से लाये हुए बुद्ध कि प्रतिमा से मंडित होता। मैंने यह भी ब्यक्त किया मेरे भाषा के अनुशीलन से अधुना भारत कि प्राचीन अबस्थिति एशिया के सारे बिकल्पों से मिश्रित हैं.
यानि सारे भगबान कि परिकल्पना (सिर्फ हिन्दू देवता कि नहीं) सूर्य से कि गयी है, और तात्कालिक समाज कि धार्मिकता से भगबान कि स्थानांतरण होती रही है, शिब और बिष्णु समाज के दो धार्मिक मतवादों से प्रेरित रोते हँसते भगबान बन चुके हैं, दोनों मिलते हैं तो, बात होती है आपस में, “बिष्णु, वो लोग अब मुझे पारबती के साथ शादी करा रहे हैं, जब कि प्यार मुझे लक्मी से थी, लक्मी बनगयी माडेल और शादी तुम से हुई, अब पारबती कि मेरी दुश्मनी थी हाईस्कूल में कुछ लोग इसका फायदा लेकर मेरी शादी उस से करवाना चाहते हैं जब कि मैं शादी करना चाहता हूँ मीर सलमा बेगम से”.
जैसे जैसे समाज कि आभ्यन्तरिण स्थिति और दुस्थिति बदलती रहती हैं, उसके धार्मिक मतवाद भी एक दूसरे के ऊपर कायम होने लगते हैं. बिष्णु शिब में, शिब कामदेव में, कामदेव कुत्ता कमीना में और कुत्ता इंद्रा में तब्दील होने लगता है. फिर हम उस से उनको दूर रखना चाहते हैं जो अभी तक हमारे दादा गिरी को सम्मान करना नहीं सीखे। वोह बन जाते हैं या तो दूसरे मताबलंबी या “हमरे कट्टर दुश्मन अग्गु भाई खग्गु, मुहम्मद पहलबान भंडारी “.
कामशास्त्र और चेतन अतः एक अलग अलग शीरे से प्रेरित हुए महनीयता हैं. मेरा बिवेचना यह है, बिज्ञान के साथ जुड़े हुए मुद्दे इतने सारे शिरों से जुड़े हैं उनके ऊपर आलोकित करना एक बिज्ञान सिद्ध अनुभूति होगी, जिस को बिज्ञान के तरह ऊपर कि तथा पार्श्वे कि और बिस्तारित होनी पड़ेगी; एक ही उक्ति से कायम नहीं होती बिज्ञान।
इसके वजह से मंगल कि ओर गयी हुयी हमारी काबिलियत सिर्फ मंगल या सूरज से नहीं जुडी है, पर अगर हम इसकी बिवेचना सिर्फ इसी दृष्टी से करें कि ऐसी सुरजगामी मण्डलयान (यानि सूरज या सौर्यमंडल सम्बंधित बिज्ञान कि प्रक्षेपण प्रयोग) कितने सफल रहे हैं, मंगलयान कि अधुना कि गयी परीक्ष्यण सौर्यपरिक्रमा करती हुई ग्रहों के बीवीधता के अनुध्यान से प्रेरित बाकि सारे यात्राओं के ऊपर भी वेसे ही परिद्रित होनी चाहियें जैसे बिज्ञान कि एक महान अभिनायक दूसरे सारे महानायकों के कंधे पर बीचरण किया हो.
उनकी अवदान कि मुल्यांकन अपने आप में एक बिज्ञान है, पर हमारी मंगल यान कि सफलता कि परिभाषा भी हज़ारों गुण ज्यादा रहती अगर भारत पहली बार कुछ ऐसे करती जिसे कभी बिश्व ने किया ही नहीं है, इसकी आशा कम हैं, अब भारत के बहत सारे बापू और छोटा भीम हैं, लेकिन हम ने सौर्यमंडल या हौल टेलिस्कोप के शिवाय बाकि कोई बिज्ञान कि नयी खुली हुयी शीरे में भी कोई कमाल नहीं दिखाया, हमारे शोच ही अनुबंधित हैं बिश्व कि मोहर पे, जो एक बिश्व प्रेरणा नहीं बिश्व मारिया कि ग़ुलामी है, हिन्दू होते हुए भी और शादी (यानि स्वतंत्रता) होने के बाद भी, हम कायम हैं, अपने आदत पर, जो गलत नहीं, बस हमारे दावा इसके बिपरीत हो जाते हैं, यानि हमें किसने बंधक बनाया मारिया के प्यार में? हम ने, हमारे बीबी ने, या हमारे संसार ने? सत्य कि कुछ और शीरे यहाँ भी खुल जाते हैं.